बिहार की जनजातीय जनसंख्या:
2000 में बिहार के दो राज्यों-बिहार और झारखंड में विभाजन के बाद, अधिकांश आदिवासी आबादी क्षेत्र झारखंड में चला गया।
2001 की जनगणना के अनुसार, बिहार में लगभग 7.6 लाख जनजातीय जनसंख्या थी।
2011 की जनगणना के अनुसार, बिहार में लगभग 13.4 लाख आदिवासी आबादी थी।
अब फिलहाल , बिहार में लगभग 20 लाख जनजातीय जनसंख्या रहती है, जो राज्य के कुल जनसँख्या का लगभग 1% जनसंख्या है।
बिहार के 14 जिले ऐसे हैजहाँ जनजातियों की घनी आबादी पायी जाती हैं। कटिहार (6% आदिवासी आबादी), जमुई, बांका और पूर्णिया जिलों में बिहार में सबसे बड़ी जनजातीय जनसंख्या है।
बिहार की प्रमुख जनजातियाँ संथाल, उरांव, गोंड और खरवार हैं। संथाल बिहार की सबसे बड़ी जनजाति है।
बिहार में जनजातीय जनसंख्या की समस्याएं निम्नलिखित हैं;
सामाजिक-आर्थिक समस्याएं;
जैसा कि हम जानते हैं कि जनजातियों की आजीविका जंगल में निहित है। लेकिन बिहार में ज्यादा जंगल नहीं है जो भी है वह भी दिन प्रतिदिन कम होते जा रहे है। इसलिए, अधिकांश आदिवासी आबादी कृषि गतिविधियों में लगी हुई है। ज्यादातर लोग, अन्य क्षेत्रों में खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करते है क्योंकि अधिकांश जनजातियों के पास कृषि के लिए पर्याप्त जमीन नहीं थी।
कुछ जनजातियों के पास तो घर बनाने के लिए भी जमीन नहीं हैं।
कुछ जनजातियों के पास जमीन का आकार छोटा है।
बिहार में जनजातियों को गैर जनजातियों को जमीन बेचने का अधिकार नहीं है और उन्हें अपनी जमीन की कीमतों के बारे में भी पता नहीं है। इस कारण से कुछ अमीर जनजातीय के लोग सस्ते में गरीब जनजातीय लोगो की जमीन खरीद लेते हैं।
आदिवासी समुदायों में गरीबी व्याप्त है।
2011 की जनगणना के अनुसार, बिहार में जनजातियों की साक्षरता दर 55.68% है। लिंगानुपात लगभग 952 (प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाएं) है।
जनजातियों के बीच खराब साक्षरता दर और खराब कौशल के कारण वे विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में काम करने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि इन क्षेत्रो में कुशल श्रम बल की आवश्यकता होती है।
जनजातीय जनसंख्या क्षेत्रो में बुनियादी जरूरत की चीजें जैसे स्कूल, हॉस्पिटल, सड़क, बिजली जैसी सुविधाओं की भरी कमी हैं। इन बुनियादी सुविधाओं की कमी , जनजातियों में कम साक्षरता, और गरीबी के कारण अक्सर लोग नक्सलवाद में सम्मलित हो जाते हैं।
बच्चों और महिलाओं में कुपोषण की समस्या है जिनके कारण इन क्षेत्रो में बच्चों में उच्च मृत्यु दर देखने को मिलता है।
तपेदिक, कुष्ठ रोग, आयोडीन की कमी, शराब के कारण जिगर ( लिवर ) की शिथिलता आदि बिहार के आदिवासी समुदायों में मौजूद आम बीमारियाँ हैं।
राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी;
2001 के बाद से, सरकार ने बिहार में आदिवासी समुदायों की सही से आबादी की जनगणना नहीं की गई है। जनजातीय जनसंख्या को 'संदिग्ध नागरिकों' के रूप में देखा जाता है क्योंकि उनके पास भूमि के स्वामित्व के अधिकार के लिखित दस्तावेज नहीं हैं।
राज्य में न तो आदिवासी आयोग है और न ही ट्राइफेड (जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ) का एक भी भवन है।
कुल मिलकर राजनीतिक रूप से इनके विकास पे ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा हैं।
जनजाति की समस्याओं के समाधान के लिए बिहार राज्यों द्वारा उठाए गए कदम;
बिहार के विभाजन के बाद राज्य ने आदिवासी समुदायों के विकास पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है।
आदिवासी समुदायों से संबंधित कुछ योजनाएं निम्नलिखित हैं;
वन उत्पादों को प्रोत्साहन देने के लिए और आदिवासी लोगों की आय बढ़ाने के लिए राज्य सरकार द्वारा आदिवासी विकास मंत्री के नेतृत्व में वनधन योजना शुरू की गई है।
मुख्यमंत्री ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के छात्रों को लोक सेवा में भागीदारी बढ़ाने के लिए छात्र वृती योजना की सुरुवात की हैं। बीपीएससी प्रीलिम्स क्लियर करने के लिए 50,000 रुपये और यूपीएससी प्रीलिम्स क्लियर करने पर 1 लाख रुपये एससी और एसटी छात्रों को दिया जायेगा ।
मुख्यमंत्री अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जाति छात्र योजना के अंतर्गत , सरकार मान्यता प्राप्त संस्थानों के छात्रावासों में रहने वाले सभी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों को 1000 रुपये प्रदान करेगी।
Try to solve the following questions:
- बिहार में जनजाति जनसंख्या की समस्याओं का उल्लेख कीजिए तथा इनके समाधान के लिए राज्य के द्वारा उठाए जा रहे कदर्मों की विवेचना कीजिए । ( 65th BPSC geography)
You may like also:
1 Comments:
Click here for Commentsबिहार प्रदेश की सरकार और सभी राजनीतिक दलों के द्वारा बिहार प्रदेश में निवास कर रहे आदिवासियों के साथ धोखा होते आया है।और इस से भी बड़ी बात है।कोई आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए नेतृव और आदिवासी समुदाय से नेता भी नही हैं।जिन लोगों को आरक्षण के आधार पर विधानसभा भेजा जाता है।वो राजनीतिक दलों के दुवार चुना हुल लोग होने के नाते आदिवासियों का आवाज न बन कर राजनितिक दल अर्थतः पार्टी सुप्रीमो का चमचा बने रहते हैं।बिहार से झारखंड अलग होने के बाद आदिवासी समाज सभी प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक सहायता से रहित होकर रह रहे हैं सभी राजनीतिक दलों के लोगों और सरकारों ने आदिवासीयो को धोखा दिया और छाला है।
ConversionConversion EmoticonEmoticon